आखिर चौंसठ योगनी मंदिर का क्या सच है ?

किसी वक्त आभूषणों से लदी महिलाएं हिन्दू मंदिरों में रहती थीं जिन्होंने स्वयं को कला, व नृत्य में डुबो रखा था। मंदिरों में गीत गातीं व संगीत रचतीं, वे किसी एक पुरुष से नहीं, ईश्वर से बंधी थीं और उनकी सुंदरता मंदिरों की दीवारों पर कमनीय प्रतिमाओं के रूप में उकेरी गई थी।  इस प्रकार की मातृसत्तात्मक संरचनाओं के सच्चे अर्थ तथा इनकी गहराई को समझने में नाकाम भारत के ब्रिटिश शासकों ने इन आजाद महिलाओं को वेश्या समझा। समाज सुधारकों ने भी उनका साथ दिया जिनका विश्वास था कि ये महिलाएं शोषित थीं और सम्भवत: अपनी देह पर उनका अधिकार नहीं था। दूसरी ओर पुरोहितों ने भी मंदिर अनुष्ठानों तथा मंदिरों की सम्पदाओं पर महिलाओं के नियंत्रण को अवैध करार देने के लिए इन पितृसत्तात्मक तथा नैतिकतावादी धारणाओं को बढ़ावा दिया। 


यह सब बेहद विडम्बनापूर्ण था क्योंकि प्राचीन वास्तुविदों ने इन मंदिरों की कल्पना महिलाओं की लेटी हुई निर्बल देह के रूप में की थी जिनके गर्भ में ईश्वर प्रतिष्ठापित थे। ये मंदिर कमनीयता तथा प्रजनन क्षमता के वास्तुविद् उत्सव जैसे थे जिन्होंने बौद्ध विहारों की मठवासी अनुर्वरता को चुनौती दी। 


वास्तव में एक हजार वर्ष पूर्व, जब भगवान विष्णु व शिव जी जैसे नर देवों को समर्पित देश के शानदार मंदिरों का निर्माण नहीं हुआ था, देश में इस्लाम का आगमन नहीं हुआ था जिन्हें देहरहित ईश्वर में विश्वास है, भारत में विशिष्ट रूप से स्त्रीत्व को समर्पित गोलकार मंदिर बन चुके थे जिन्हें हम योगिनी मंदिर के रूप में जानते हैं।


इनमें से कुछेक आज भी बचे हैं। 2 उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट हीरापुर तथा बोलनगीर के निकट रानीपुर में हैं। 3 मध्य प्रदेश में जबलपुर के निकट भेड़ाघाट, ग्वालियर के निकट मितावली और खजुराहो (जो गोलाकार नहीं है) में हैं। ये मंदिर लम्बे वक्त से परित्यक्त हैं जिनके कारण आज भी रहस्य बने हुए हैं।