भारत में किराए की कोख यानी सरोगेसी का बाजार लगभग 63 अरब रुपये से ज्यादा का है.
गर्भ धारण के दौरान सरोगेट माताएं अलग सामूहिक शयन गृहों (डॉर्मेट्री) में रहती हैं, जिसे आलोचक ‘बेबी फैक्टरी’ कहते हैं.
निःसंतान लोगों को इस प्रकार संतान की प्राप्ति होती है लेकिन उन महिलाओं की स्थिति दयनीय होती है जो पैसे के लिए दूसरे का भ्रूण वहन करती हैं.
सरोगेसी हाउस
गुजरात के एक छोटे से शहर आणंद में डॉ. नयन पटेल का अस्पताल है. वसंती भ्रूण इम्प्लांट के बाद इसी अस्पताल के पास ही स्थित डॉर्मेट्री में नौ महीने रहीं.
यहां उनके साथ 100 अन्य सरोगेट माताएं भी थीं और प्रत्येक कमरे में 10 माताओं को रखा गया था.
पैसा
अगर सरोगेट माता जुड़वां बच्चों को जन्म देती है तो उसे करीब सवा छह लाख रुपए मिलता है और यदि पहले ही गर्भ गिर गया तो उसे करीब 38,000 रुपए देकर विदा कर दिया जाता है.
बच्चा चाहने वाले दंपति से अस्पताल हर सफल गर्भवास्था के लिए करीब 18 लाख रुपए लेता है.
आइवीएफ क्लीनिक और डॉर्मेट्री की संचालिका डॉ. पटेल को लेकर विवाद भी कम नहीं है.
वह कहती हैं, ”मुझे बहुत कुछ सहना पड़ता है. लोग आरोप लगाते हैं कि यह बच्चा पैदा करने का यह व्यवसाय है, बच्चा बनाने की फैक्ट्री है. इससे ठेस लगती है.”
कुछ लोगों का कहना है कि सरोगेट माताओं का शोषण होता है लेकिन पटेल इससे सहमत नहीं हैं.
वह कहती हैं, ”माताएं शारीरिक श्रम करती हैं और इसके लिए उन्हें उचित पारिश्रमिक दिया जाता है. वे जानती हैं कि बिना कष्ट के लाभ नहीं मिल सकता.”
पटेल के अनुसार, सरोगेट हाउस में रहते हुए महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई जैसे हुनर सिखाए जाते हैं ताकि बाहर जाने पर वह अपनी आजीविका कमा सकें.
यह पारिश्रमिक स्थानीय मानकों से कहीं ज्यादा है. वसंती को मिलने वाली राशि उसके पति की 2500 रुपए प्रति माह की कमाई की तुलना में बहुत ज्यादा है.
कठिन जिंदगी
लेकिन सरोगेट माताओं की सामाजिक जिंदगी इतनी आसान नहीं होती क्योंकि इसे हेय दृष्टि से देखा जाता है.
वहीं सरोगेसी आज जरूरत बन गयी है कुछ महिलाओं की तो वहीं निः संतान दंपत्ती के लिए वरदान ।