बीजेपी को विनायक दामोदर सावरकर की याद में उन्हें भारत रत्न देना चाहती है। बीजेपी द्वारा महाराष्ट्र के लिए जारी संकल्प पत्र में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के साथ वीर सावरकर को भी भारत रत्न दिलवाने का वादा किया गया।
आप मानें न मानें लेकिन विनायक दामोदर सावरकर को आधुनिक भारत के इतिहास की सर्वाधिक विवादित शख्सियतों में से एक माना जाता है। सावरकर को लेकर अलग-अलग राजनीतिक दलों या विचारधारा के लोगों और इतिहासकारों के अपने-अपने मत, तर्क और दावे हैं। सावरकर को ‘वीर’ मानने वाली जमात उन्हें सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर ही नहीं देखती है, बल्कि ‘हिंदुत्व’ और ‘राष्ट्रवाद’ ब्रांड की राजनीति के सूत्रधार की तरह देखती है। वही ‘हिंदुत्व’ और ‘राष्ट्रवाद’ ब्रांड की राजनीति, जिसकी संजीवनी पाकर बीजेपी आज सत्ता के शिखर तक पहुंची है।
क्या सचमुच ‘वीर’ थे सावरकर?
28 मई, 1883 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में जन्मे विनायक दामोदर सावरकर बेशक एक स्वतंत्रता सेनानी रहे थे। उन्होंने 1857 के सैन्य विद्रोह को पहला स्वतंत्रता संग्राम करार देते हुए इस पर एक किताब ‘द इंडियन वॉर को इंडिपेंडेंस’ लिखी, जो साल 1909 में छपी थी। लेकिन सावरकर का क्रांतिकारी करियर काफी छोटा रहा। साल 1911 में उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी की सजा सुनाकर अंडमान के सेलुलर जेल में डाल दिया।
इतिहासकार आरसी मजूमदार की किताब ‘पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स’ के मुताबिक, सजा शुरू होने के चंद महीने बाद ही सावरकर का हौसला टूट गया और वो अपनी रिहाई के लिए ब्रिटिश हुकूमत को चिट्ठी लिखने लगे। सावरकर ने 1911, 1913 और 1921 में तीन बार अपनी रिहाई की अपील की। सावरकर ने ढाई पन्ने की चिट्ठी में यहाँ तक लिखा कि उन्हें रिहा किया गया तो वह भारत की आजादी की लड़ाई छोड़ देंगे और सदैव अंग्रेजी सरकार के वफ़ादार बनकर रहेंगे। इसी शर्त पर सावरकर रिहा हुए और जेल से छूटने के बाद ‘हिंदू राष्ट्र’ का एजेंडा लेकर मैदान में आ गए।
देखा जाए तो बाद के वर्षों में सावरकर ने अंग्रजों से कभी वादाखिलाफी नहीं की और 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से न सिर्फ किनारा किया, बल्कि अपने समर्थकों और अनुयायियों को इनमें हिस्सा लेने मना किया। तो कुल मिलाकर सावरकर को ‘वीर’ मानने का एक पैमाना हो सकता है – उनका दस साल जेल में गुजारना। निश्चित तौर पर देश के लिए दस साल जेल में रहना बड़ी बहादुरी की बात है। लेकिन सावरकर ने तो शुरुआत में ही अपने क्रांतिकारी विचारों की तिलांजलि दे दी थी। मन ही मन स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने से ‘तौबा’ कर लिया था। वो तो अंग्रजों का दिल पसीजने में दस बरस बीत गया।
सावरकर के बदले भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को क्यों न मिले भारत रत्न
फिर भी, यदि सावरकर को दस साल के कारावास के आधार पर बीजेपी भारत रत्न दिलाना चाहती है तो इसमें भी उनका नंबर काफी पीछे आता है। इस हिसाब से पहले भगत सिंह को भारत रत्न क्यों न मिले, जो जेल से रिहा होने के रास्ते ढूंढ़ने की बजाय साथी कैदियों को अच्छा खाना दिलाने और उनसे अच्छा व्यवहार किये जाने के लिए लड़े और हँसते-हँसते फांसी के फंदे पर झूल गए।