महज होली का नाम या शब्द आते ही जहन में उल्लास, उमंग और रंगों की अनुभूति होने लगती है। रंगों का ये पर्व भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में मनाया जाता है। होली का नाम लेते ही रगों में उन्मादित खुशी दौड जाती है। होली पर प्रहलाद और होलिका से जुडा प्रसंग भी बरबस याद आ जाता है। ये तो सभी जानते हैं कि होलिका दहन के दूसरे दिन रंग पर्व मनाया जाता है। होलिका का दहन बुराई के प्रतीक के तौर पर किया जाता है लेकिन दहन से पहले होलिका की पूजा भी की जाती है। लेकिन क्या आपके मन में ये सवाल आया है कि यदि होलिका बुरी थी तो फिर उसकी पूजा क्यों की जाती है।
होलिका बुरी थी तो उसकी पूजा क्यों?
होली की उत्पत्ति का सबसे तार्किक विवरण वेदों में मिलता है। वेदों में इस दिन को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा गया है। यह वह समय होता है जब खेतों से पका हुआ अनाज घर लाया जाता था। पवित्र अग्नि में जौ, गेहूं की बालियां और चने को भूनकर उन्हें प्रसाद के रूप में बांटा जाता था। एक तरह से यह दिन आहार के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन का उत्सव है।
अथर्व वेद के अनुसार किसी संवत्सर अर्थात नव वर्ष का आरंभ अग्नि से होता है। साल के अंत में फागुन आते-आते यह अग्नि मंद पड़ जाती है। इसीलिए नए साल के आरंभ के पहले उसे फिर से प्रज्वलित करना होता है। यह अग्नि फागुन मास की पूर्णिमा को जलाई जाती है जिसे संवत दहन कहते हैं। उसके बाद चैत्र से गर्मी की शुरुआत होती है। आज भी होलिका दहन के मौके पर लोग संवत ही जलाते हैं। इस अग्नि उत्सव के अगले दिन रंगों से खेलने की परंपरा भी प्राचीन काल में ही शुरू हो गई थी।
- होलिका दहन की कथा:
कहते हैं कि वर्षो पूर्व पृथ्वी पर एक अत्याचारी राजा हिरण्यकश्यपु राज करता था वह अपने छोटे भाई की मौत का बदला लेना चाहता था जिसे भगवान विष्णु ने मारा था। उसने कठोर तपस्या कर देवताओं से यह वरदान प्राप्त कर लिया कि वह न धरती पर मरेगा न आसमान, न दिन में मरेगा न ही रात में, न अस्त्र से होगी हत्या न शस्त्र से, न घर में मरेगा न बाहर, न पशु मार सकेगा न कोई नर मार सकेगा।
यह वरदान पाकर वह खुद को अमर समझने लगा और अत्याचार करने लगा। वह खुद को भगवान कहने लगा और लोगों को उसे भगवान मानने पर मजबूर करने लगा। उसने अपनी प्रजा को यह आदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति ईश्वर की वंदना न करे, बल्कि उसे ही अपना आराध्य माने। लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद ईश्वर का परम भक्त था जो कि बालक ही था वह उसके खिलाफ हो गया और वह भगवान विष्णु की पूजा करता रहा।
उसने अपने पिता की आज्ञा की अवहेलना कर अपनी ईश-भक्ति जारी रखी। इसलिए हिरण्यकश्यपु ने अपने पुत्र को दंड देने की ठान ली। हरिण्यकश्यपु से यह बर्दाश्त नहीं हुआ उसने प्रह्लाद को अनेक यातानाएं दी लेकिन भगवान उसकी हर घड़ी मदद करते और उसका विश्वास और भी दृढ़ हो जाता।
इसी समय होलिका ने एक चद्दरनुमा वस्त्र या कवच तपस्या कर लिया था जिसे ओढ़ने के बाद उसे अग्नि जला नहीं सकती थी। ये होलिका का भाई हिरण्यकश्यप था। अब यह तय हुआ कि होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर बैठेगी व वह अग्नि में समाप्त हो जायेगा। उसने अपनी बहन होलिका की गोद में प्रह्लाद को बिठा दिया और उन दोनों को अग्नि के हवाले कर दिया। लेकिन यहां भी भगवान ने उसका साथ दिया और जैसे ही आंच प्रह्लाद तक पहुंची बड़े जोर का तूफान आया और होलिका के कवच ने प्रह्लाद को ढंक लिया व होलिका अग्नि में भस्म हो गई। लेकिन दुराचारी का साथ देने के कारण होलिका भस्म हो गई और सदाचारी प्रह्लाद बच निकले।
उसी समय से हम समाज की बुराइयों पर अच्छाई की जीत के रूप में होलिकादहन मनाते आ रहे हैं। सार्वजनिक होलिकादहन हम लोग घर के बाहर सार्वजनिक रूप से होलिकादहन मनाते हैं।
- राक्षसी ढुंढी का वध:
कहते हैं राजा पृथु के राज्यकाल में ढुंढी नाम की एक बहुत की ताकतवर व चालाक राक्षसी थी, वह इतनी निर्मम थी की बच्चों तक को खा जाती। उसने देवताओं की तपस्या कर यह वरदान भी प्राप्त किया था कि उसे को देव, मानव, अस्त्र-शस्त्र नहीं मार सकेगा और न ही उस पर गर्मी, सर्दी व वर्षा आदि का कोई असर होगा। इसके बाद तो उसने अपने अत्याचार और भी बढ़ा दिये। किसी को भी उसका वध करने में सफलता नहीं मिल रही थी। सभी उससे तंग आ चुके थे। लेकिन ढुंढी भगवान शिव के शाप से भी पीड़ित थी। इसके अनुसार बच्चे अपनी शरारतों से उसे खदेड़ सकते थे व उचित समय पर उसका वध भी कर सकते थे। जब राजा पृथु ने राज पुरोहितों से कोई उपाय पूछा तो उन्होंने फाल्गुन पूर्णिमा के दिन का चयन किया क्योंकि यह समय न गर्मी का होता है न सर्दी का और न ही बारिश का। उन्होंने कहा कि बच्चों को एकत्रित होने की कहें। आते समय अपने साथ वे एक-एक लकड़ी भी लेकर आयें। फिर घास-फूस और लकड़ियों को इकट्ठा कर ऊंचे ऊंचे स्वर में मंत्रोच्चारण करते हुए अग्नि की प्रदक्षिणा करें। इस तरह जोर-जोर हंसने, गाने व चिल्लाने से पैदा होने वाले शोर से राक्षसी की मौत हो सकती है। पुरोहित के कहे अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा के दिन वैसा ही किया गया। इस प्रकार बच्चों ने मिल-जुल कर धमाचौकड़ी मचाते हुए ढुंढी के अत्याचार से मुक्ति दिलाई। मान्यता है कि आज भी होली के दिन बच्चों द्वारा शोरगुल करने, गाने बजाने के पिछे ढुंढी से मुक्ति दिलाने वाली कथा की मान्यता है। - भगवान शिव व पार्वती से जुड़ी कथा:
होली का त्यौहार मनाने का संबंध भगवान शिव व माता पार्वती की एक कथा से जुड़ा है। कथा कुछ यूं है कि माता पार्वती जो कि हिमालय की पुत्री थी वे भगवान भोलेनाथ को चाहने लगती हैं और उनसे विवाह करना चाहती हैं। वहीं भगवान भोलेनाथ हमेशा तपस्या में लीन रहने वाले। ऐसे में माता पार्वती के लिये भगवान शिव के प्रति अपने प्रेम का इजहार करना और उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखना बहुत मुश्किल हो रहा था। तब उनकी सहायता के लिये कामदेव आते हैं और पुष्प बाण के जरिये भगवान शिवशंकर की तपस्या को भंग कर देते हैं। भगवान भोलेनाथ की तपस्या भंग करने का परिणाम शायद वे जानते नहीं थे, जैसे ही भगवान भोलेनाथ की आंखे खुली उन्हें कामदेव की इस हरकत पर बहुत अधिक क्रोध आया व अपने तीसरे नेत्र से उन्हें भस्म कर दिया लेकिन जैसे ही माता पार्वती सामने आयी उनका क्रोध कुछ शांत हुआ माता पार्वती के प्रस्ताव को उन्होंने स्वीकार कर लिया। माना जाता है कि होली के त्यौहार पर अपनी कामवासना को अग्नि में जलाकर निष्काम भाव के प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है। हालांकि इसी कथा को थोड़ा दूसरे नजरिये से भी प्रस्तुत किया जाता है जिसके अनुसार कामदेव के भस्म होने पर उनकी पत्नी रति भोलेनाथ की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करती हैं और कामदेव को जीवित करने की प्रार्थना करती हैं। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भोलेनाथ कामदेव को जीवित कर देते हैं। जिस दिन यह सब हुआ वह दिन फाल्गुन मास की पूर्णिमा यानि की होली का दिन माना जाता है। लोक गीतों में तो रति विलाप के गीत भी मिलते हैं व अग्निदान में चंदन की लकड़ी दी जाती है ताकि कामदेव को जलने में होने वाली पीड़ा से मुक्ति मिले। मान्यता है कि कामदेव के पुन: जीवित होने की खुशी में अगले दिन रंगों वाली होली मनाई जाती है। - राक्षसी पूतना के वध की कथा:
राक्षसी पूतना के वध की कथा भी होली के इस पर्व से जोड़ी जाती है। कहते हैं जब कंस के लिये यह आकाशवाणी हुई कि गोकुल में उसे मारने वाले ने जन्म ले लिया है तो कंस ने उस दिन पैदा हुए सारे शीशुओं को मरवाने का निर्णय लिया। इस काम के लिये उसने पुतना राक्षसी को चुना। पुतना बच्चों को स्तनपान करवाती जिसके बाद वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते लेकिन जब उसने श्री कृष्ण को मारने का प्रयास किया तो श्री कृष्ण ने पूतना का वध कर दिया। यह सब भी फाल्गुन पूर्णिमा के दिन हुआ माना जाता है जिसकी खुशी में होली का पर्व मनाया जाता है।
होलिका दहन की परंपरा कितने सालों से भारत में मनाया जा रहा है एव भक्त प्रल्हाद की बुआ होलिका जी को किस युग मे जलाया गया था?
होलिका दहन यह त्यौहार कितने सालों से भारत में मनाया जा रहा है उसका उल्लेख कही नहीं मिलता किन्तु, विष्णुपुराण के अनुसार हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रल्हाद की बुआ होलिका जी को सत्य युग मे जलाया गया था और भगवन विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण किया था।