दिलचस्प बात यह है कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के जुमले को किसी ने अभी तक परिभाषित नहीं किया है. जनसंघ के एक संस्थापक तथा भाजपा के अधिकृत विचारक माने गए प. दीनदयाल उपाध्याय की स्मृति में दिए गए एक भाषण में नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘… पचास साल पहले पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि मुसलमानों को न तो पुरस्कृत करो और न तिरस्कृत करो बल्कि उन्हें परिष्कृत करो. उन्हें न तो वोट की मंडी का माल बनाओ, न घृणा की वस्तु बनाओ. उन्हें अपना समझो.’
मुस्लिमों पर राजनीति और मुस्लिम तुष्टिकरण कोई समाजवादी पार्टी से सीखे जहाँ तुष्टिकरण के कारण अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलायी गयी थी और उसका था मुस्लिमों को खुश करना।
आखिर ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ है क्या?
व्यापक अर्थों में देखें तो ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ को मुसलमानों से संबंधित राजनीति के दो पहलुओं— संस्थागत भेदभाव, और बेजा राजनीति के संदर्भ में देखा जाता है. हमारे संविधान में धार्मिक अल्पसंख्यकों को कुछ अधिकार दिए गए हैं, जो वक्फ सरीखी स्वायत्त संस्थाओं, मुस्लिम पर्सनल लॉ, और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसे शैक्षिक संस्थानों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं. लेकिन इन्हें अनुचित और समस्यामूलक माना जाता है.दावे किए जाते हैं कि अल्पसंख्यकों के अधिकार कानून के शासन पर आधारित धार्मिक समानता तथा धर्मनिरपेक्षता की भावना से मेल नहीं खाते.
‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ को खास किस्म की राजनीति से भी जोड़ कर देखा जाता है. राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों को शिक्षा/आर्थिक सशक्तीकरण, चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट, मुस्लिम त्योहारों पर छुट्टी देने आदि के जो आश्वासन देते हैं उसे भी ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ कहा जाता है.