नाम बदलने को लेकर योगी आदित्यानाथ कुछ ज्यादा ही सक्रिय हैं. उन्होंने इलाहबाद का नाम प्रयागराज कर दिया है. वो कहते हैं कि इलाहबाद का पुराना नाम प्रयाग ही था. साल 1574 में तब के मुग़ल बादशाह अकबर ने इसका नाम बदलकर इलाहबाद रख दिया था. कहा जाता है कि यहीं से अकबर ने अपने नए धर्म दीन-ए-इलाही की शउरुआत की थी. प्रयाग में एक किले की नींव रखी थी तभी उन्होंने इसका नाम इलाहबाद रखा. आज 444 साल बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गंगा, यमुना और लुप्त हो चुकी सरस्वती नदियों के संगम की इस जगह को उसका पुराना नाम लौटा दिया.
ऐसा नहीं है कि पहली बार कोई नाम बदला गया हो। नाम बदलने का लंबा इतिहास है। कभी राज्यों, तो कभी शहरों का। सड़क-मुहल्लों की गिनती नहीं कर पा रहा नगर निगम का जो भी आका होता है, वो मनमानी करता रहता है। आसपास नजर दौड़ाएंगे तो तमाम पार्षदों के मां-बाप, रिश्तेदारों के नाम पर सड़कें मिल जाएंगी। राज्यों या शहरों का नाम बदलने के लिए केंद्र की स्वीकृति लेनी होती है।
स्वतंत्र भारत में साल 1950 में सबसे पहले पूर्वी पंजाब का नाम पंजाब रखा गया। 1956 में हैदराबाद से आंध्रप्रदेश, 1959 में मध्यभारत से मध्यप्रदेश नामकरण हुआ। सिलसिला यहीं नहीं खत्म हुआ। 1969 में मद्रास से तमिलनाडु, 1973 में मैसूर से कर्नाटक, इसके बाद पुडुचेरी, उत्तरांचल से उत्तराखंड, 2011 में उड़ीसा से ओडिशा नाम किया गया। लिस्ट यहीं खत्म नहीं होती। मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, शिमला, कानपुर, जबलपुर लगभग 15 शहरों के नाम बदले गए। सिर्फ इतना ही नहीं, जुलाई 2016 में मद्रास, बंबई और कलकत्ता उच्च न्यायालय का नाम भी बदल गया।
नामों में ज्यादातर बदलाव राजनीतिक कारणों से होता है लेकिन कुतर्क ऐतिहासिक भूल को दुरुस्त करने की दी जाती है या कभी साम्राज्यवादी विरासत से बाहर निकलने की दी जाती है। नाम बदलने से सरकारों को फायदा ये होता है कि उन्हें कम समय में सुर्खियां बटोरने को मिल जाती है, दूसरा गंभीर विषयों से जनता का ध्यान बाहर निकालना होता है।
आपको याद होगा कि यूपीए सरकार के समय में कनाट प्लेस और कनाट सर्कस का नाम बदलकर राजीव चौक और इंदिरा चौक हुआ था। इस बात को एक दशक से भी ज्यादा हो चुका है लेकिन आज भी लोग कनाट प्लेस ही जाते हैं। अगर कनाट प्लेस का नाम बदल जाने से कांग्रेस को फायदा होना होता तो कब का हो चुका होता ।
बहरहाल, नामकरण की राजनीति बंद होनी चाहिए। यदि आवश्यक भी हो तो एक गैर राजनीतिक कमेटी होनी चाहिए, जो नाम बदले जाने के पीछे वाजिब तर्क दे सके।