भोपाल गैस कांड की वो रात जिसकी सुबह नहीं हुई

2 दिसंबर 1984 की रात भी बाकी रातों की तरह सामान्य थी. देश में लोकसभा चुनावों का माहौल था. लगभग एक महीने पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का कत्ल हुआ था और उनके बेटे राजीव ने सत्ता संभाली थी. दिल्ली और कुछ शहरों में बड़े पैमाने पर सिख विरोधी दंगे हुए. फिलहाल हालात सामान्य थे. लोग अपने घरों में सो रहे थे या सोने की तैयारी में थे. रविवार का दिन था. कामगार लोग अगले दिन काम पर जाने की सोचकर समय पर सो जाना चाहते थे. करीब आधी रात की बात थी. कुछ लोग रात में 9 से 12 का फिल्म का शो देखकर घर लौट रहे थे. अचानक उन्हें सांस लेने में अजीब सी परेशानी महसूस हुई. सांस की परेशानी के बारे में वे सोचते उससे पहले आंखे जलने लगी. वो कुछ समझ पाते उससे पहले सामने से भागती आती हुई भीड़ दिखाई दी. ये भीड़ उनके पास आते-आते पहले से कम हो गई क्योंकि पीछे दौड़ रहे लोग गिरते जा रहे थे. अब इन सबको समझ आ गया था कि कुछ गड़बड़ हो गई है. ये गड़बड़ हुई थी उस समय साढ़े आठ लाख की आबादी वाले भोपाल के सैकड़ों लोगों को नौकरी देने वाले यूनियन कार्बाइड के कारखाने में.

सड़कों पर लाशों के ढेर

भोपाल के करीब पांच लाख लोग इस गैस की चपेट में आ चुके थे. भोपाल के कई स्थानीय लोग इस फैक्टरी में काम भी करते थे. उन्हें ट्रेनिंग के दौरान बताया गया था कि कभी प्लांट में कोई भी गैस लीकेज हो तो हवा की उल्टी दिशा में भागें और अपने कपड़े गीले कर जमीन पर औंधे मुंह लेट जाएं. आजाद मियां जैसे कई लोगों को जब पता चला कि गैस लीक हो गई है तो उन्होंने अपने घर और आस पड़ोस वालों को ये तरीका बताया और हवा की उल्टी दिशा में भागे और आगे जाकर जमीन पर लेट गए. ऐसा करने से बहुत सारे लोगों की जानें तो बच गईं लेकिन इस खतरनाक गैस से वो हमेशा के लिए विकलांग हो गए. भोपाल की सड़कों पर ऐसे ही लाशें पड़ी दिखाई देने लगीं जैसे महीने भर पहले हुए सिख विरोधी दंगों के दौरान दिल्ली में पड़ी थीं. जो लोग जिंदा बचे वो अस्पतालों की तरफ भागते दिखे. भोपाल में तब बस दो अस्पताल थे. रात का वक्त होने के चलते जूनियर डॉक्टर्स ही ड्यूटी पर थे. देखते ही देखते मरीजों का अंबार लग गया और डॉक्टरों के पास कफ सिरप और आई ड्रॉप के अलावा कोई इलाज नहीं था.