वो महिला मुख्यमंत्री जो अपने साथ सायनाइड का कैप्सूल लेकर चलती थी

1963 में कांग्रेस कामराज प्लान लेकर आई. कि पुराने लोगों को अपने पद छोड़ने होंगे ताकि देश के हर राज्य में पार्टी को मजबूत किया जा सके.

पर चंद्रभानु गुप्ता के हटते ही समस्या हो गई कि किसको मुख्यमंत्री बनाया जाए. क्योंकि चौधरी चरण सिंह, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा समेत कई लोग इसके दावेदार थे. खुद चंद्रभानु का ग्रुप बहुत गुस्से में था. तो कांग्रेस ने अप्रत्याशित रूप से एक औरत को चुन लिया मुख्यमंत्री. उस वक्त तक देश के किसी राज्य में कोई औरत मुख्यमंत्री नहीं बनी थी. सुचेता कृपलानी को मुख्यमंत्री बना दिया गया. सुचेता बंगाली थीं. दिल्ली में पढ़ी थीं. यूपी से कोई नाता नहीं था. पर ये दांव चलकर कांग्रेस ने विद्रोहियों को कुछ पल के लिए शांत तो कर ही दिया था.

एक बंगाली लड़की, पंजाब में पली-बढ़ी और यूपी की मुख्यमंत्री बन गई

सुचेता के पिताजी अंबाला में डॉक्टर थे. सुचेता इंद्रप्रस्थ और सेंट स्टीफेंस से पढ़ीं. फिर बीएचयू में लेक्चरार हो गईं. 1936 में सोशलिस्ट लीडर जे बी कृपलानी से शादी हो गई. तो सुचेता ने नाम बदल गया. काम भी. कांग्रेस जॉइन कर लिया. स्वतंत्रता आंदोलन में खूब मेहनत की. 1942 में उषा मेहता औऱ अरुणा आसफ अली के साथ भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुईं. ये तीन औरतें ही इस आंदोलन में सबसे ज्यादा चर्चित रहीं. जीके के प्रश्न में इन तीनों का नाम आता है इस आंदोलन के लिए.फिर जब आजादी के वक्त नोआखाली में दंगे हुए, तब महात्मा गांधी के साथ सुचेता ही गई थीं वहां.

आजादी के बाद संविधान सभा बनी. इसमें सुचेता औरतों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं. संविधान बना. इसमें औरतों के अधिकारों को लेकर सुचेता मुखर रही थीं. नेहरू के ट्रिस्ट विद डेस्टिनी स्पीच से पहले इन्होंने वंदे मातरम गाया था. ये फेमस सिंगर भी थीं.

फिर देश की राजनीति बदली. आजादी की लड़ाई का खुमार उतरने लगा. अपने वरिष्ठों में बुराइयां और कमजोरियां नजर आने लगीं. कांग्रेस के नेताओं की आपसी नापसंदगी अब खुल के सामने आने लगी. सबसे ज्यादा फंसे नेहरू. डेमोक्रेटिक परिवेश में नेहरू अपने नॉलेज को बतौर तानाशाही इस्तेमाल करते थे. उन्हें लगता कि जो वो सोच रहे हैं, वही सही है. कैपिटलिस्ट इकॉनमी के समर्थक तो नेहरू से नाराज थे ही, सोशिलिस्ट भी नाराज हो गये थे. वो दौर आदर्शवाद का था. जिसको लगता कि नेहरू आदर्शवाद से विमुख हो रहे हैं, वो अपना दल बना लेता.

1952 में आचार्य जे बी कृपलानी के नेहरू से संबंध खराब हो गये. उन्होंने अलग पार्टी बना ली. कृषक मजदूर प्रजा पार्टी. कांग्रेस के खिलाफ खड़ी हो गई पार्टी. 1952 के लोकसभा चुनाव में सुचेता इसी पार्टी से लड़ीं और नई दिल्ली से जीत के आईं. 1957 के चुनाव में भी जीतीं. अबकी कांग्रेस से. क्योंकि फिर मनमुटाव दूर हो गये थे. पढ़ने में मनमुटाव लगता है, पर ये भी हो सकता है कि राजनीतिक करियर को लेकर पाला बदल लिया गया हो. जैसे-जैसे राजनीति समझ आ रही है, वरिष्ठों के फैसलों पर भी सवाल तो उठने ही लगे हैं. तो अबकी नेहरू ने इनको राज्यमंत्री बना दिया.  बाद में 1967 में गोंडा से जीतकर ये फिर संसद पहुंची थीं.

इन सबके बीच 1962 में इनको उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए भेजा गया. बस्ती जिले के मेंढवाल सीट से. नेहरू ने इनको ही अपना हथियार बनाया था. 1963 में ये भारत के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री बन गईं. ये सब कुछ राजनीति को साधने के लिए हुआ था. इनके शासन काल में एक घटना हुई जो सबको याद रही. सरकारी कर्मचारियों ने पेमेंट को लेकर हड़ताल कर दी थी. 62 दिनों की. पर सुचेता डिगी नहीं. पेमेंट नहीं बढ़ाया.

इसके बाद 1971 में सुचेता राजनीति से रिटायर हो गईं. कुछ दिन सामान्य जीवन बिताया. फिर 1974 में इनकी मौत हो गई. संयोग की बात है, नई दिल्ली से अभी एक औरत ही सांसद हैं. मीनाक्षी लेखी.

कहा जाता है कि जब सुचेता कृपलानी नोआखाली में घूम रही थीं तब वो अपने साथ सायनाइड का कैप्सूल भी रखती थीं. क्योंकि उस वक्त वहां पर औरतों के साथ कुछ भी हो जा रहा था. एक किताब में इस बात का जिक्र है. ग्रेट वुमन ऑफ मॉडर्न इंडिया नाम से सीरीज आई थी. इसमें सुचेता कृपलानी पर लिखी किताब में ये बातें हैं.