करीब ३०० साल पहले दक्षिण भारत के जांबाज़ योद्धा टीपू सुल्तान ने एक ऐसे हथियार का अविष्कार किया था जिसने दुश्मनों की नाक में दम कर दिया था| ये वो राजा थे जिन्होंने १८ वी शताब्दी में अंग्रेजों को धुल चटा दी थी| अंग्रेजों ने कई दफा टीपू सुल्तान से हाथ मिलाने की कोशिशें की मगर कभी कामयाब नहीं हुए थे और इसी वजह से टीपू सुल्तान और उनके पिता हैदर अली ने अंग्रेजों के खिलाफ चार जंगे लड़ी थी, जिन्हें एंग्लो मैसूर वॉर के नामों से जाना जाता है|
युद्ध के समय जब अंग्रेजों के गोले-बारूद टीपू सुल्तान पर भारी पड़ने लगे थे तब टीपू ने अपने सैनिकों को एक ऐसा हथियार दिया जिसका सामना ब्रिटिश फ़ौज ने पहले कभी नहीं किया था| उस हथियार को इतिहास में मैसूरियन रॉकेट के नाम से जाना जाता है
आपको बता दें कि टीपू सुल्तान के पिता हैदर अली एक सिपाही के बेटे थे और हैदर अली के पिता सैनिक दाल में एक सिग्नलिंग डिवाइस के प्रमुख थे| उन दिनों छोटे रॉकेट का इस्तेमाल युद्ध में सिग्नल देने के लिए किया जाता था| हैदर अली के दिमाग में इन सिग्नल देने वाले छोटे रॉकेट को युद्ध में इस्तेमाल करने की सोच आयी और उन्होंने इसमें छोटे बदलाव करके उनमे बारूद भरकर युद्ध में इस्तेमाल करने के लिए तैयार किया और रॉकेट बनाने का काम शुरू कर दिया|
इन रॉकेटों ने टीपू सुल्तान को इतना आकर्षित किया कि इस मैसूर के शेर ने इन रॉकेटों में बदलाव करके, इनमे ४ फुट लंबी तलवारें लगाकर इसे और भी खतरनाक बना दिया| बता दें कि जब इस रॉकेट को आग लगाकर छोड़ा जाता तो रॉकेट में मौजूद बारूद की वजह से इसे करीब १ किलोमीटर तक की गति मिलती और बारूद के ख़त्म होने पर तलवार के वजन की वजह से वे हवा में घूमती हुई अंग्रेजों की सेना पर गिरती और उन्हें भारी नुक्सान पहुँचती थी|
साल १७६७ से साल १७९९ में टीपू सुल्तान और अंग्रेजों के बीच हुई लड़ाइयों में टीपू के इस अविष्कार ने खूब कहर मचाया था| मगर इनके बीच हुई आखिरी लड़ाई, जिसका टीपू सुल्तान को बिल्कुल अंदाजा नहीं था उसमे उन्हें हार का सामना करना पड़ा और वीरगति प्राप्त की| मगर टीपू सुल्तान के मरने के बाद उनके इस अविष्कार को समझने के लिए ब्रिटिश लोग इसे अपने साथ ले गए और इसका इस्तेमाल नेपोलियनों के साथ हुए युद्ध में भी किया था|