मध्यप्रदेश…अजब है, गजब है। उसी के साथ यहां की सियासत भी अजब-गजब है। यहां पर सरकार अपना वोट बैंक बचाए रखने के लिए सरकारी खजाने से पैसा लुटाने से परहेज नहीं करती हैं। किस तरह से सरकारी पैसा बर्बाद किया जाता है, इसका खुलासा सरकार की प्याज खरीदी से हो रहा है। किसानों के आक्रोश से डरी सरकार ने इस साल एक बार फिर प्याज खरीदने का फैसला लिया।
यह जानकर भी कि सरकार के पास प्याज को सडऩे से बचाए रखने के कोई इंतजाम नहीं हैं। हाल यह रहा है कि सरकार ने सात सौ करोड़ रुपए की प्याज खरीदी और उसे वापस मिले सिर्फ 114 करोड़ रुपए। ऊपर से करीब तीन लाख मीट्रिक टन प्याज सड़ गई है। उस पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की दलील है कि मालूम था कि प्याज सड़ेगी। अब सरकार प्याज को खरीदकर फेंके या किसान खुद, इससे क्या फर्क पड़ता है। किसान को उसकी फसल का वाजिब दाम देने की कोशिश की गई है।
बस इसी सियासी बयान से शुरू होती है मध्यप्रदेश की सियासत। यही लोक-लुभावन सियासत है, जिसके पीछे सरकार की मशीनरी की खामियां छिप जाती हैं। सरकार ने किसानों के दबाव में पिछले साल से प्याज खरीदना शुरू किया है। पिछले साल करीब एक लाख मीट्रिक टन प्याज खरीदी गई। सरकार ने किसानों को छह रुपए किलो के हिसाब से भुगतान किया। करीब 60 करोड़ रुपए प्याज खरीदी पर खर्च किया गया। इसमें से 70 हजार मीट्रिक टन प्याज खराब हो गई और सरकार के पास 60 करोड़ में सिर्फ 14 करोड़ रुपए ही वापस आए। सरकारी खजाने से प्याज पर पैसा लुटाकर सरकार ने खुद को किसान समर्थक करार देकर वोटों की फसल काटने की तैयारी शुरू कर दी। सरकार ने खुलकर अपने निर्णय की तारीफ की, लेकिन उसमें कहीं भी इस बात पर जोर नहीं दिया गया कि आखिर सरकारी मशीनरी ने प्याज को कैसे सड़ा दिया?
बात यहीं पर खत्म नहीं होती है। जुलाई के शुरुआती दिनों में ही प्रदेश में किसान आंदोलन शुरू हो गया। किसान आंदोलन से घबराई सरकार ने प्याज खरीदी का एक बार फिर ऐलान कर दिया। प्याज के भाव भी पिछले साल के मुकाबले बढ़ाते हुए आठ रुपए प्रति किलो तय कर दिए। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से प्रदेश में बंपर प्याज की पैदावार हुई। आलम यह रहा कि प्रदेश के 23 जिलों के 59 खरीदी केंद्रों से करीब 8.76 लाख मीट्रिक टन प्याज की खरीदी की गई। जिसके लिए सरकारी खजाने से करीब 700 करोड़ रुपया खर्च किया गया। सरकार का दावा है कि उसने 5.71 लाख मीट्रिक टन प्याज को पीडीएस सिस्टम और कारोबारियों को बेचकर ठिकाने लगा दिया है। शेष प्याज मंडियों में सड़ रहा है। महत्वपूर्ण यह है कि सरकार ने यह प्याज औसत दो रुपए किलो की दर पर कारोबारियों और पीडीएस सिस्टम को बेचा है। मतलब आठ रुपए किलो की प्याज को दो रुपए किलो के भाव पर बेचा गया। सरकार के खजाने से खर्च हुए सात सौ करोड़ रुपए के एवज में वापस सिर्फ 114 करोड़ रुपए ही आए। बाकी का पैसा प्याज के सडऩे के साथ ही चला गया।
सरकार की बदइंतजामी पर सवाल उठना लाजिमी थे, सो उठना शुरू भी हो गए हैं। लेकिन सरकार की ओर से सफाई देने के लिए खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आगे आए। उन्होंने कहा कि हमें मालूम था कि प्याज सड़ेगा, ऐसे में बेहतर है कि प्याज किसानों के खेतों में सडऩे के बजाय सरकारी गोदामों में सड़ जाए। आखिर किसानों को बाद में मुआवजा बांटने से बेहतर है कि उन्हें पहले ही फसल का दाम दे दिया जाए। दरअसल, मुख्यमंत्री के इस बयान के पीछे पूरी राजनीति है। किसान आंदोलन से घबराई सरकार खुद को किसानों का मसीहा बताने की कोशिश में लगी हुई है। ऐसे में वह प्याज खरीदी जैसे मुद्दों को आगे कर किसान हितैषी होने का सर्टिफिकेट तो ले रही है, लेकिन उसके बीच में अपनी मशीनरी की लापरवाही को भी छुपा जा रही है। खरीदी में गड़बड़ी से लेकर उसे कारोबारियों को बेचने और फिर उसके संरक्षण तक गड़बडिय़ां हुईं। पिछले साल हुई खरीदी से भी सरकार ने कोई सीख नहीं ली और आखिर में इस बार करीब 580 करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान झेलकर सरकार किसानों के भले की बात कर रही है।
हांलाकि विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस विधायक अजय सिंह प्रदेश सरकार पर हमलावर होते हुए कहते हैं कि सरकार ने प्याज सड़ाने के नाम पर पांच सौ करोड़ रुपए का घोटाला किया है। किसानों के नाम पर सरकार और उसके अफसरों ने पैसे की बंदरबाट की है। प्याज कैसे सड़ गई, क्यों नहीं उसके रखने के इंतजाम खरीदी शुरू करने से पहले किए गए। जब सरकार एक साल पहले प्याज खरीदी में यह अनुभव हासिल कर चुकी थी तो फिर उसने क्यों नहीं अपनी गलती को सुधारा। कहीं न कहीं सरकार के मन में कोई खोट था। कुल मिलाकर सत्ता और विपक्ष के बीच में प्याज एक बड़ा मुद्दा बनकर सामने आ गई है। अब यह बात और है कि सरकार की इन कोशिश से किसानों का भरोसा कितना बढ़ा है, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।