इतिहास के पन्ने में दर्ज कई तारीखें इसके कड़वेपन को बताती हैं। 2001 में ग्वालियर घराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया के निधन के बाद एक कड़वी कहानी फिर सामने आई थी। अपने हाथ से 1985 में लिखी वसीयत में राजमाता ने अपने एकमात्र बेटे माधवराव सिंधिया से निधन के बाद मुखाग्नि देने का अधिकार छीन लिया था।
राजमाता की दो वसीयतें (1985 और 1999) सामने आईं और इस पर आज भी अदालत में मुकदमा चल रहा है। मां और बेटे के रिश्ते बहुत कड़वाहट भरे थे। राजमाता और पिता के बीच की कड़वाहट ज्योतिरादित्य अब तक नहीं भूल पाए हैं।
क्या कड़वाहट ही रही वजह
हालांकि 2001 में राजमाता के निधन के बाद वसीयत के मुताबिक मुखाग्नि की इच्छा न व्यक्त किए जाने के बावजूद श्रीमंत माधवराव सिंधिया ने मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया को मुखाग्नि दी, लेकिन कड़वाहट तो थी। राजमाता ने जयविलास पैलेस में रहने के लिए माधवराव से सालाना एक रुपये का किराया मांगा था।
माधवराव को सरदार आँगरे का प्रभाव था नापसंद
माधवराव सिंधिया को अपनी माता पर सरदार आँगरे का प्रभाव पसंद नहीं था. उनको इस बात पर भी ऐतराज़ था कि सिंधिया परिवार के धन को बेतरतीब ढ़ंग से राजनीति में ख़र्च किया जा रहा है.
रशीद किदवई लिखते हैं, “माधवराव राव के नज़दीकी दोस्तों की बात मानी जाए तो युवा महाराज को इस बात से बहुत धक्का पहुंचा था कि जयविलास राजमहल से धन और जेवर ग़ायब होते जा रहे थे. कहा जाता है कि सिंधिया परिवार के पास सोने, चांदी और जवाहरातों से भरे कुएं थे. माधवराव ये देख कर आश्चर्यचकित थे कि ये कुएं धीरे-धीरे ख़ाली होते जा रहे थे.”
माधवराव की नज़र में उनका माँ की व्यापारिक सोच नहीं के बराबर थी. उनकी नज़र में राजमाता ने मुंबई और दूसरी जगहों पर सिंधिया परिवार की संपत्ति को बाज़ार मूल्य से कहीं नीचे औने-पौने दाम में बेच दिया था.
माधवराव सिंधिया की जीवनी में वीर सांघवी और नमिता भंडारे लिखते है, “ये दावा किया गया था कि इन सौदों में आँगरे का हाथ था और उन्हें कथित रूप से इसमें कमिशन मिलता था. राजमाता भी इन संपत्तियों की बिक्री से प्राप्त धन से कुछ पैसा आँगरे को उनकी सेवाओं के बदले देती थीं. धीरे-धीरे आँगरे विजयराजे और उनके बेटे के बीच संबंधों में कटुता लाते चले गए.”